कुछ साल पहले पत्रकार खुशियों को एक दूसरे में बांटते थे। अब दूसरे की खुशी देखकर जलन होती है। कुछ साल पहले पत्रकारों का मीडिया मालिको से घरेलू रिश्ते थे। अब नोकर बन गये है। कुछ साल पहले पत्रकार अधिकारियों की बोलती बंद करते थे। अब माफीनामा से अधिकारियों को शांत किया जाता है। कुछ साल पहले प्रबंधन तंत्र और मीडिया मलिक की बोलती बंद कर देते थे सम्पादक। अब सम्पादक मीडिया मलिक को खुश करने के लिए पत्रकार की रोजी रोटी लेने में हिचकता नही है।
ऐसा क्यों ? क्योंकि बाहरी वे लोग जिनका उद्देश्य पत्रकारिता नहीं बल्कि व्यापार करना है। फांक डालकर अपना धंधा करना। किसी की छवि शहर में निखर रही हैं, उससे कटुता पैदा हो जाती है। मेरे पास इस तरह के कई उदाहरण हैं। मै जिस अखबार में पत्रकार था उस अखबार के यूनिट हेड का हर ओर जलवा था। उन्ही की वजह से तीसरे नम्बर वाला अखबार नम्बर एक मे दर्ज हुआ। उस अखबार में जब अलग से संपादक की तैनाती अलग से हुई। फिर वही कहावत चरितार्थ हुई नया नया मौलाना अल्लाह अल्लाह पुकारता है। जब बाहर से सम्पादक आये वह नई टीम बनाते रहे। नतीजा यह हुआ पत्रकारिता धराशायी हो गई। पत्रकारिता नहीं सिर्फ मकान बनाने की होड़ शुरू हो गई। सम्पादक अपना मकान खड़ा करने के लिए सारी मर्यादा लांध गया। जो खाक नही जानता उसकी सम्पादक जैसे महत्वपूर्ण पद पर तैनाती करवा दी। मीडिया मालिक भी शिकायतों को अनसुना कर गया। वह दौर भी देखा मैने अगर फोटो ग्राफर के चोट आने पर यूनिट हेड ने थाना प्रभारी के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया और पुलिस प्रशासन के साथ सरकार को भी झुकाया है।